रविवार, 8 सितंबर 2013

आस

              अंग्रेजी पढ़ते पढ़ते मैं कब अस्तित्व से दूर जाने लगा,पता न चला । पर आज अचानक डाउनलोड मैनेजर में पूरी वैबसाइट डाउनलोड करने का ऑप्शन दिखा तो याद आया की किसी जमाने में अपनी भी कोई वैबसाइट हुआ करती थी जहाँ दिल की सदा चस्पा कर  दिया करता था। कई कविताएँ ,कुछ आप-बीती ,कुछ टिप्पणियाँ और कुछ उनसे मिले-जुले चित्र जो संदेशमत्र थीं की आँखों में विविध रंग उतर रहे होंगे ,अक्सर आ जाया करते थे जेहन में ।पर लगभग डेढ़ साल होने को हैं की मुझसे कोई कविता बह जाये,कृति की धारा निकल पड़े। यह तो मुझे ज्ञात नहीं कि श्रोत सूख गया या रंग ख़त्म हो गए पर असर साफ़-साफ़ दिखता है कि कभी लिख जाने के लिए बैठता हूँ तो कविता अधूरी रह जाती है या गद्य का तार टूट जाता है ,शब्दों का बहाव अवरूद्ध हो जाता है। ऐसे में कुछ लिखूँ भी तो क्या फायदा -वे मन कि अकुलाहट होंगी ,जेहन के बोल नहीं ।
         पर कहानियाँ ,कविताएँ पढ़ने के शौक में कोई खास बदलाव नहीं आया है ।अलग बात है कि अंग्रेजी में लिखी ,दिल को न छू पाने वाले गद्य में ज्यादा समय काटना पड़ता है ।पर अभी भी लाइब्ररी जाने के ख़याल से पैदा होने वाला डर बरकरार है कि कहीं मैं जरूरत कि किताबों को छोड़ मैग्जीन सेक्शन में रखी कादंबिनी - नवनीत जैसे सागर में न डूब जाऊँ। न जाने मजबूरी और जरूरत कि आड़ में शौक और पसंद का गला कब तक घोंटना होगा ।
         तो जब डाउनलोड मैनेजर में इस ब्लॉग का पता डाला तो पूरी वैबसाइट डाउनलोड हो गयी।फिर एक-एक कविताओं-टिप्पणियों के साथ जुड़ी सारी स्मृतियाँ किसी हसीन वादी की panoramic view की भाँति आँखों के सामने से गुजरने लगी ।
         "भोर" लिखने के लिए सुबह 5 बजे ही जग कर हॉस्टल से थोड़ी दूर जंगल में ऊँचे टीले पर बैठ उस so called 'दूध वाली लाल पॉकेट डायरी' में शब्द उकेरना और मंदिर में बज रहे घंटों की सुमधुर संगीत अभी भी मन-मस्तिष्क में वैसे का वैसा ही छपा है। बदलाव की ऐसी ही कस्मकश में" बदलाव " भी निकाल आई थी ।सब कुछ बादल रहा था - स्मृति , भाव ,विचार ,मेरे आस-पास की दुनिया,पर ऐसे गिने-चुने क्षण -जब मैंने तुम्हें कमरे से बाहर निकल उस पूर्णिमा के बड़े से खिलखिलाते चाँद को निहारने कहा था और मैं अपने कुछ साथियों के साथ playground में बैठा दोनों चाँद से बतिया रहा था,और "प्रिय चाँद" की कल्पना उभर आई थी-की यादें । अभी भी लगता है जैसे यह सब कल शाम की ही बातें हों। और इस वर्ष होली की छुट्टियों में आयुर्वेद और भारतीय पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान में डूबा मैं न जाने क्या-क्या लिक्स गया "भारत" में ।
        "चुप चुप क्यों" की बातें तो चर्चा से परे हैं।
        कभी देशभक्ति या संस्कृति का महत्त्व (भारत),कभी AOL की विशाल दुनिया (YES!+ के पाँच सूत्र ,AOL Family,Hero AOLites),कभी दैवीय प्रेम(एक ब्रह्म,गुरु तेरा संग) तो कभी सांसारिक (नयनो का संसार),कभी अपने गाँव की यादें (उन्मुक्त यादें,धरती और मुशाफिर),और कभी बदलते भाव (समय-समय की बात),तो कभी तन्हाई (आप इतना क्यों याद आते हैं),कभी दोस्तों का संग (बिन तेरे,प्रभो माधव को सप्रेम भेंट ) या फिर कभी जीवन की बारीकियाँ(यही जिंदगी है,फूलों की हंसी),कभी प्राकृतिक सौंदर्य (माँ प्रकृति,उफ्फ! ये ठंड ,हमारी प्रकृति),इतने सारे रंगों से सजे स्मृति-पटल पर नए रंग की गुंजाइश ही नहीं । या शायद रंग ही समाप्त हो गए हों ।
        अभि की "एहसास प्यार का",दीप्ति शर्मा का "स्पर्श",सीखा जी का "स्पंदन" में अभी भी इतनी कूवत शेष है कि मुझमें सूख पड़ी धारा को एक बार फिर नदी का रूप प्रदान करने में कामयाब हो जाये। आशा है !!

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