सोमवार, 14 नवंबर 2011

नयनों का संसार

क्षमा प्रार्थी हूँ  जो इतने क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया,पर नयनों की भाषा इतनी जटिल है की सीधे शब्दों में पंक्तिबद्ध नहीं होती.यह कविता उस मंजर को दर्शाती है जब प्रेमी अपनी प्रेमिका की आँखों में डूबता जाता है.फिर आँखों से जो भाषा कुछ कहती प्रतीत होती है उसका वर्णन इस प्रकार है......

मौन की अद्वितीय भाषा में,
अपूर्णता  नहीं,क्षुद्रता  नहीं,
विचित्र नयनो की अभिलाषा में ,
अपंगता नहीं ,अक्षमता नहीं

मौन की शक्ति समाहित द्वोर्जा में
प्राकृत  प्रकट,पर कोई चंचलता नहीं
पूरा विश्व अवतरित द्विनेत्रों  में
न ही सीमित ,अविनीत नहीं

दया,प्रेम,करुणा,त्याग इस संसार में
 ईर्ष्या नहीं,धृष्टता नहीं
प्रतीत होते हैं एक आग्रह में
सह सकती नहीं अवहेलना,बेवफाई नहीं

विदित होता है टेसुओं से
विक्षोह नहीं,बस एकता है ,पर प्रतिभूति नहीं
सम्मोहित हूँ मैं ,डूबता रहा हूँ अथाह सागर में
बचने की कोई गुंजाइश नहीं,और ख्वाहिश भी नहीं|

भावार्थ इस प्रकार है......
प्रथम पद्यांश (आँखों  की भाषा मौन है.इसमें खो जाने पर किसी वस्तु  की ख्वाहिश नहीं रह जाती.हृदय पूर्ण व तृप्त हो जाता है.दो नयनों की जो चाह है वह पूर्ण स्पष्ट है व इन्हें विश्वास है कि ये जो चाहती  है वह पा ही लेंगी.)
द्वितीय पद्यांश (मौन में जो शक्ति है वह इन दोनों ऊर्जा रुपी आखों में समाहित हो गयी हैं. पर यह ऊर्जा दिशाहीन नहीं,बिलकुल अविचल है.दोनों नेत्रों में पूरा विश्व जो विशाल है दीखता है पर इसमें कोई अभिमान नहीं दृष्टता.)
तृतीय पद्यांश (जितने भी स्त्रियोचित गुण हैं सभी इन आखों में साफ़ साफ़ दीखते हैं पर इनमे ईर्ष्या-द्वेष नहीं दिख रही न ही कोई चालाकी,बिलकुल नवजात शिशु के आखों की तरह.ये सामने की दो आँखों से यह आग्रह कर रही हैं कि कुछ भी हो हमें अपने दिल से ज़रा भी दूर न  करना और न ही इन आँखों को सौत के दर्शन कराना व बिलकुल मेरी तरह दिल साफ़ रखना )
चतुर्थ पद्यांश (आँखों से लुढ़कते अश्क ने गुस्से को अपने में घोलकर आँखों को बरी कर दिया है जिसके फलस्वरूप  दोनों आँखें सामने की दो आँखों में एकाकार हो गयी हैं.मैं इन दो सागर जैसे आखों में डुबकियाँ लगाता  रहा हूँ जिनमे डूबने से मुझे कोई बचा नहीं सकता और न ही मैं प्रयास करूँगा बचने का)

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