ऐसा क्यों होता है
एक पल को लगता है सब अपने हैं
काफी सामंजस्य है मुझमे,तुझमे ,हम सब में
जुड़े हैं एक ही तार से
पर अगले ही क्षण महसूस होता है
अकेला हूँ मैं, बिलकुल अकेला
जो नजदीकी हैं,बयां न कर सकते उनसे भी
व्यवहार फिर औपचारिक होता जाता है
तब मौन ही मेरी भाषा है
मेरा सबसे अपना ,परम मित्र
करीबी भी तब दूर के रिश्तेदार लगते हैं
शून्य में जाती है नजर , शरीर निष्प्राण
मौन की गूंजती संगीत , चुप्पी की वृद्धि करती
इन्द्रियां सिमट जाती हैं, मन संलग्नता त्यागता है
फिर चंद विषय , गर्माते हैं
शिथिल हुए मन को
ताकि फिर फ़ैल सके यह
भाग सके यह विषय वृत्तियों के पीछे
संलग्न हो फिर उन्ही मनभावनी कृत्यों में
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