रविवार, 23 जनवरी 2011

"तेरी दहाड़ के विरूद्ध "

तूने क्या सोचा,हम तेरी दहाड़ से सदा डरते रहेंगे?हम जब वनों में रहा करते थे,हमारे पास तन ढकने तक को कपडे न होते थे,हम ठण्ड में काँप रहे होते थे और उसी वक्त तेरी दहाड़ सुन कर ठण्ड में भी पसीने आ जाया करते थे|तब तुम हमें बहुत सताते थे |हमें चैन की नींद सोना भी नसीब नहीं होता था |तभी हमने ठान ली थी,तभी से हमारी कांटे की टक्कर चली आ रही है|हमने जब से एक शब्द 'विकास' का अर्थ जान लिया फिर तुम्हारे दहाड़ से पैदा होने वाला डर धीरे-धीरे जाता रहा |तब तुम सर उठा, सीना तान कर वनों में भ्रमण करते थे ,अब हम तुम्हारा सर लिए जंगलों से होते हुए शहर और शहरों से होते हुए पुरे विश्व में भ्रमण करते हैं|
                                                     अब तुम्हें मेरी बातें समझ में आ रही होंगी की दिनों दिन तुम्हारे सरों की संख्यां कम क्यों होती जा रही हैं|तुम्हें पता होना चाहिए की हम मनुष्य लड़ाई झगरे और युद्धों में माहिर हो चुके हैं| हम जिसके विरूद्ध एक बार ठन जाते हैं उसकी खैर नहीं |और हमारी तो तुमसे आदिकाल से ठानी हुई है |
                                                    सब समय का खेल है|तब तुम हमारा शिकार करते थे ,अब हम तुम्हारा शिकार करते हैं|तुम्हारे शिकार पद्धति  में और हमारे शिकार पद्धति  में अंतर बस इतना है कि तुम भूख मिटने के बाद शिकार नहीं करते और हम भूख मिटने पर भी भूखे होने का नाटक कर शिकार करते हैं|और अब तो हमें हमेशा भूखे होने कि आदत सी पड़ चुकी है.....................इसलिए तुम अपनी दयनीय स्थिति का कारण खुद ही समझ सकते हो....|

रविवार, 16 जनवरी 2011

माँ प्रकृति

बारिश की बौछार की गूँज
बिजली के टंकार की गूँज
शहीदों के तलवार की गूँज
गूंजती हो यथा शेर की दहाड़ की गूँज

भुजंग शैलपुत्र नापते आसमान को
अलंकृत हैं श्याम सफ़ेद बादलों की टोप पहने
जैसे हों शिव विराजित संग जटा-जूट गहने 
शिव सर्प माला श्वरूप
हिम आच्छादित है शिखर पर
सूर्य की किरणों से साझा हो रहा सौंदर्य है
ओ हिमालय मेरी दृष्टि चूम रही नैसर्ग्य है

जोर की आवाज आई सरकती मेरी तरफ
बरसात में ओले गिरे भारक्ति मेरी तरफ
मैंने जो आवाज दी -हे प्रकृति क्या है तू?

किरणों ने आसमाँ सजाये
बदली सारा जग घूम आई
हवाओं ने करताल बजाये
पेड़ झूमने लगे लहरियां गूंजने लगीं
जैसे हो किया अभिवादन मेरा झुक कर मेरी तरफ.........
मेरा भी शत शत नमन
हो कर भी मौन तुझको
तू तो  है सर्वश्व मेरी
करती क्यों मुझको नमन
पिसती  रहती है क्यों तू
करने में मेरी तृष्णा शमन
.........कहने लगी-
मैं माँ हूँ तेरी 
सेवा ही है मेरा धरम
करले तू आहात भी मुझको
करती रहूंगी मैं अपना करम....

बरसने लगे नयन मेरे
गरज न जाने कहाँ गयी
जाना के माँ होती है क्यूँ
और ममता जैसे महान त्याग को

माँ प्रकृति ने दिया
है कितने उपहार हमको 
पर हमने छीना  हक़  समझ
भूल गए उपकार माँ का........

यारों दोस्ती बड़ी ही हसीन है...........

सब कुछ होते हुए भी कुछ खोता हुआ सा लगता है,
चेहरा हँसता है ,पर दिल रोता हुआ सा लगता है,
न जाने किसकी गैरमौजूदगी है आखिर ,हर पल हर दिन अन्दर कुछ होता हुआ सा लगता है
पाता हूँ  लोगों  के  बीच  भी  खुद  को  तन्हा ,
तुम  न  होते  फिर  भी  जब  सब  कुछ  होता  हुआ  सा  लगता  है ,
दिन बीत रहे होते हैं तेरे बिन पलछिन,
आँखें जागी हुई पर रूह सोता हुआ सा लगता है
यारी को भूख नहीं ग्रेड की मार्क्स की,
ये बस मोहताज है तेरे एक लम्हे-खास की, xams में तू पास हो चाहे फ़ैल ,
दिल धड्केगा तेरे संग बीते पल से ,याद रखेगा तेरे लफ़्ज़ों के मिठास की|

"एक ब्रह्म "

तुमसे  वितर  कहाँ  हूँ  मैं ,
जहाँ  तू  है  वहां  हूँ  मैं,
तुम्हे  देख  नहीं  सकता  तो  क्या ,
तेरे  सपनो  के  संग  तेरा  जहाँ  हूँ  मैं ,
कभी  वहां  हूँ  मैं  कभी  यहाँ  हूँ  मैं .

तेरे  पलकों  के  संग  आंसू  बनकर
तेरे  होठो  के  संग  हँसी  बनकर
तेरी  यादों  के  संग  रूमानियत  बनकर
तेरे  दिल  कि  ख़ुशी  हूँ  मैं .

तू  जो  सोचे  वो  सोच  हूँ मैं ,
तू  जो  ध्याये  वो  ध्यान  हूँ  मैं ,
तेरी  रातों  की  नींद  हूँ  मैं ,
तेरे  अंतर  का  गान  हूँ  मैं .

तेरे  भोर  की  अंगराई  हूँ  मैं ,
तुझ  अकेले  की  तन्हाई  हूँ  मैं ,
तू  ना  सोचे  तो  कुछ  न  सही  पर ,
गर  तू  सोचे  तो  तेरी  परछाई  हूँ  मैं ....|

बुधवार, 12 जनवरी 2011

भुला ना पाएंगे




सब कुछ होते हुए भी कुछ खोता हुआ सा लगता है,

चेहरा हँसता है ,पर दिल रोता हुआ सा लगता है,

न जाने किसकी गैरमौजूदगी है आखिर ,

हर पल हर दिन अन्दर कुछ होता हुआ सा लगता है


पाता हूँ लोगों के बीच भी खुद को तनहा ,

तुम न होते फिर भी जब सब कुछ होता हुआ सा लगता है ,

दिन बीत रहे होते हैं तेरे बिन पलछिन,

आँखें जागी हुई पर रूह सोता हुआ सा लगता है

यारी को भूख नहीं ग्रेड की मार्क्स की,

ये बस मोहताज है तेरे एक लम्हे-खास की,

xams में तू पास हो चाहे फ़ैल ,

दिल धड्केगा तेरे संग बीते पल से ,

याद रखेगा तेरे लफ़्ज़ों के मिठास की|
        

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

उफ़ ! ये ठण्ड

धुंध की चादर ओढ़े है धरती
तम को चीरने की कशमकश में
सड़क के किनारे टिमटिमाते स्ट्रीट लाइट
रूह जमाने वाली बर्फीली हवा
कमरे में शेंध मारती वो धुंध
शीशों के उस पार खड़ी है |

शायद उसको भी हो कुछ ठण्ड का एहसास
क्योकि उसे भी मेरे ही साथ आने की पड़ी है
धुंध को क्या पता कम्बल की नरमाई क्या चीज़ है
ये तो आशिक जानते हैं तरुनाई क्या चीज़ है
नींद क्या जाने सुबह की अंगड़ाई का आनंद
गुनगुनी धुप जानती है अरुणाई क्या चीज़ है |