गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

हमारी प्रकृति


क्या बच्चे मूर्ख हैं,बेवकूफ़ हैं,फालतू प्राणी हैं,घर की,परिवार की?
क्या ये दोषारोपन के निमित्त हैँ?
हम सबका उत्तर होगा 'नहीं'।
फिर हम उनको मूर्ख क्यों बतलाते फिरते हैं?
क्या सिर्फ इसलिए कि वे दुनिया के दाँव-पेच नहीं जानते,
वे यह नहीं जानते कि धूर्तता कैसे की जाती है,
क्योकि वे जैसे अंदर से हैं वैसे ही बाहर से दिखते हैं,
क्योंकि उन्हें लोगों के अनुसार रंग बदलना नहीं आता।
क्या सिर्फ इसलिए?
माना कि ये उन लोगों से अलग हैं जो खुद को वयस्क कहते हैं,जो शारीरिक रूप से,यांत्रिक रूप से,भौतिक रूप से ज्यादा सक्षम हैं।
क्या ज्यादा सक्षम होना ही श्रेष्ठता की निशानी है ?
वयस्क अपने गिरेबाँ में झांकें |
देखें कि उन्होंने अबोध हँसी हँसना कब से छोड़ दिया है ,
देखें कि तितलियों के पीछे दौड़ने का जो मजा है,सोखना कब से छोड़ दिया है,
देखें कि माँ-पिता से प्यार से गले मिलना कब से भूले बैठे हैं ,
देखें कि कितने मुखौटे , नकाब  पहना दिया है उन्होंने अन्दर छुपे एक बच्चे के चेहरे पर ,
देखें कि बड़ी बड़ी खुशियाँ पाने के फिराक में छोटी छोटी खुशियों का उनके लिए अब कोई मोल नहीं है ,
देखें कि आपस में लड़ने झगड़ने पर भी चंद पलों में ही साथ खेलने लग जाना कब से छोड़ दिया है ,
देखें कि बिस्तर पर लेटते ही परियों कि दुनियां में सैर करना कब से छोड़ दिया है |
इन लोगों को ऐसी नादान बातों के लिए समय कहाँ !
इनकी ख़ुशी इस बात में होती है कि यदि आपस में विरोधाभाष हो गया तो अपने अहंकार कि बलि पहले कौन देता है |
यह अहम् कि ,अहंकार कि,शक्ति कि होड़ है |
इन्हें यह नहीं दीखता और ना ही पता है कि पेड़ पौधों कि दुनिया में नर्म किशलय वृक्ष का अलंकार होते हैं | एक कोमल,हँसता,खिलखिलाता फूल सबसे ज्यादा खूबसूरत होता है,यद्यपि उसके पंखुड़ियों में रत्ती भर भी जान नहीं|एक छोटी सी चोट पर भी वे बिखर सकते हैं,पर उन्हें इओसकी चिंता कहाँ |वे तो मस्त हैं हंसने में ,मुस्कुराने में,फिजा को शुगंधित,सुरम्य,आनंदमय बनाने में, भ्रिंगों को लुभाने में ,हम सब को हंसाने में|जाने कब हम सीखेंगे,प्रकृति के इन होनहारों से,जीवन जीना |जाने कब हम पहचानेंगे प्रकृति प्रदत्त घर घर के फूल को और मदद करेंगे हम उनको प्रकृति के सौंदर्य को बरकरार रखने में|

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