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खुली किताब
सोमवार, 29 नवंबर 2010
धरती औ मुसाफ़िर
दीवाना होकर रह गया,
मैँ हिमालय की फिजाओँ का।
वफा कर गए,जफ़ा न हो सकी,
देख कर मचला मन,इन मदमस्त हवाओँ का॥
गंगा पुकारती रही,कलरव की साख देकर,
साहिल तरस गए,मेरे आने की आस लेकर।
बदला न यह मुसाफ़िर,जो चला था प्यास लेकर,
इक बार लङखङाकर,गिरा जो साँस देकर॥
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