शनिवार, 22 जुलाई 2017

काशी की बात

आज जब यह short फिल्म देखी तो बनारस की यादें ताज़ा हो गयीं.


इन गर्मियों में काम के सिलसिले में बनारस जाना हुआ था. कानपुर से बस लेकर इलाहाबाद होते हुए बनारस पहुंचा था. रात के लगभग 1 बज रहे थे. बस स्टैंड से ओला ऑटो लेना उचित समझा. घाट से कोई 1 किलोमीटर पहले zostel नाम के एक हॉस्टल में रुकना हुआ. वहां तक पहुचते पहुचते हिचकोले खाती ऑटो में धूल फांकते बनारस का पहला दर्शन संपन्न हुआ. उतनी रात को राज भई ने एक कॉल में ही फ़ोन उठा लिया देखकर आश्चर्य हुआ. वह घर के पहले माले के ऑफिस में सोता था. दूसरा ऑस तीसरा माला मुझ जैसे अतिथियों के लिए तैयार कर रखा था. Hostelworld पर इतने कम भाड़े में रहने का प्रबंध देखकर चकित हुआ था मैं. इसलिए oyo की बुकिंग कैंसिल कर यहाँ आया था. जिस रूम में मुझे रुकना था उसमे कुछ विदेशी लोग थे और उस वक्त गांजा चढ़ा रहे थे. मेरी स्थिति को देखते हुए उन्होंने दूसरे कमरे में रुकवाना निश्चित किया. वैसे तो कमरे में AC का इंतजाम था पर नवोदय जैसे ऊपर और निचे बिस्तर वाले चार बेड लगे हुए थे. निचे कोई सो रहा था इसलिए मुझे ऊपर का बेड दिया गया. फ़ोन को चार्ज में लगा कर मैं सो गया. सुबह काम के सिलसिले में गंगा पार कर मुगलसराय होते हुए वहां से भिषमपुर जाना था. राज भाई ने बनारस का विस्तृत मैप वाला A2 साइज़ का एक पम्फलेट दिया जिसमे सारे घाट, मंदिर, खाने के नुक्कड़, रेस्टोरेंट, चाट, लस्सी के दूकान और रास्तों का विस्तृत वर्णन था. इसी उत्साह में मैं 6 बजे जग गया. वह मानचित्र लेकर मैं घाट की ओर चला. जैसे जैसे गंगा जी का किनारा पास आ रहा था भीड़ बढती जा रही थी. हवा में गोबर, धूल, कचौरियां , फूल, अगरबत्तियों का गंध मिलकर एक अलग ही सुगंध फैला रहा था, एक अलग ही तासीर. यहाँ बम्बई जैसी भागदौड़ नहीं थी न ही गाँव जैसा ठहरा हुआ समय. हर व्यक्ति अपनी गति से गतिमान था एक सहज भाव से. गाएं, कुत्ते, लोग, पक्षियाँ सब मिलकर एक हो रहे थे. शरीर में एक स्फूर्ति का एहसास हो रहा था, एक ठहराव, एक सहजता का वहीँ मन वातावरण में रमा हुआ था. सब्जी बाज़ार से होते हुए दसाश्वमेध घाट पर निकला और कुछ देर तक गंगा की अनुपम छवि को निहारता रह गया。